एक आदमी जो वक़्त से आगे सोचता था ...लोकमान्य तिलक की वो कहानी जो हर भारतीय को जाननी चाहिए

शुरुआत एक आम से घर में हुई थी: 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के एक छोटे से गांव में एक बच्चा पैदा हुआ। नाम रखा गया बाल गंगाधर तिलक। पिता स्कूल मास्टर थे। घर में ज़्यादा पैसे नहीं थे, लेकिन ज्ञान की कमी नहीं थी। तिलक बचपन से ही बहुत तेज़ थे। जो बात बाकी बच्चे घंटों में समझते, वो वो मिनटों में पकड़ लेते। और जो बात उन्हें सबसे पहले समझ में आई थी वो ये थी कि गुलामी कभी भी मंज़ूर नहीं होनी चाहिए।
डिग्रियां तो मिल गईं, लेकिन मन कुछ और करने को कहता था
तिलक ने गणित और संस्कृत में डिग्री ली। फिर कानून की पढ़ाई की। लेकिन कुछ अंदर से खटकता रहा। किताबें पढ़ने से ज़्यादा उन्हें लगता था कि लोगों को जगाना चाहिए। उन्हें ये बात साफ़ समझ आ गई थी जब तक आम आदमी नहीं जागेगा, आज़ादी एक सपना ही बनी रहेगी।
तिलक ने स्कूल को मिशन बना दिया
अंग्रेज़ों की बनाई पढ़ाई में बच्चे भारत के इतिहास से ही कटे रहते थे। तिलक को यह मंज़ूर नहीं था। उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक स्कूल शुरू किया न्यू इंग्लिश स्कूल। बाद में यह स्कूल फर्ग्यूसन कॉलेज बना। यहां सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, देश के लिए जीना और लड़ना भी सिखाया जाता था।
एक कलम, जो तलवार से भी तेज़ थी
तिलक ने सोचा, अगर लोग मेरी बातें नहीं सुन पा रहे हैं, तो क्यों न उन्हें पढ़ने को मजबूर कर दूं। और यहीं से उन्होंने दो अखबार निकाले केसरी' (मराठी में) ,मराठा' (अंग्रेज़ी में)। इनमें तिलक अंग्रेज़ों की नीतियों की धज्जियां उड़ाते थे। उनके लेखों में इतनी आग होती थी कि लोग उन्हें पढ़कर हिल जाते थे, और अंग्रेज़ों को पसीना आ जाता था।
गणपति और शिवाजी से की देशभक्ति की शुरुआत
उस दौर में अंग्रेज सरकार किसी सभा को इकट्ठा होने की इजाज़त नहीं देती थी। लेकिन पूजा-पाठ और त्योहारों को रोकना मुश्किल था। तिलक ने इसे ही हथियार बना लिया। उन्होंने गणपति उत्सव और शिवाजी महोत्सव को सार्वजनिक किया ताकि लोग इकट्ठा हों, बात करें, और धीरे-धीरे देश की हालत को समझें। आज जो गणपति महोत्सव इतने धूमधाम से मनता है उसकी शुरुआत तिलक ने क्रांति की भावना से की थी।
'लाल-बाल-पाल': जिनसे अंग्रेज़ डरते थे
1905 के बाद तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल की जोड़ी बन गई। लोग इन्हें प्यार से कहते थे "लाल-बाल-पाल"। तीनों का एक ही मकसद था देश को अंग्रेज़ों की जंजीरों से आज़ाद कराना। तिलक बार-बार कहते थे हम भीख नहीं मांगेंगे, आज़ादी हमारा हक है। उनका ये तेवर अंग्रेजों को रास नहीं आया, और कई बार उन्हें जेल भी भेजा गया।
जेल की चारदीवारी में लिखा अमर ग्रंथ: 'गीता रहस्य'
1908 में उन्हें फिर गिरफ़्तार किया गया। इस बार उन्हें बर्मा भेजा गया जहां का नाम था मंडाले जेल। सोचिए, एक क्रांतिकारी, लोहे की सलाखों के पीछे लेकिन उसका मन आज़ाद! वहीं पर उन्होंने‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य’ नाम की किताब लिखी। उन्होंने बताया कि गीता सिर्फ धर्म की किताब नहीं है एक जंग लड़ने की तैयारी सिखाती है। वो कहते थे जब अधर्म बढ़ जाए, तब चुप रहना पाप होता है।
मुस्लिम एकता का सपना देखा था तिलक ने
बहुत से लोग तिलक को सिर्फ हिंदू नेता मानते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि उन्होंने 1916 में लखनऊ समझौता करवाया जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने साथ मिलकर अंग्रेज़ों से स्वराज की माँग की। वो मानते थे भारत सबका है। जब तक सब साथ नहीं आएँगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा।
गांधी से भले अलग थे, पर मकसद एक था
महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, तो तिलक पहले नेता थे जिन्होंने उन्हें आगे बढ़ाया।
हां, उनके रास्ते अलग थे। गांधी शांति की बात करते थे, तिलक संघर्ष की। लेकिन दोनों की मंज़िल एक थी आज़ाद भारत।
1 अगस्त 1920: एक युग का अंत
1 अगस्त 1920 को तिलक ने इस दुनिया को अलविदा कहा। देश भर में शोक की लहर दौड़ गई। लाखों लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए। महात्मा गांधी ने कहा “तिलक भारत का वह बहादुर सपूत था, जिसने हमें आंख खोलना सिखाया”।
उनका सपना अधूरा नहीं रहा
तिलक का सपना था स्वराज। उनके जाने के 27 साल बाद, 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ। शायद ऊपर से वो देखकर मुस्कुरा रहे होंगे जो सपना मैंने बोया था, वो अब फल देने लगा है।
आखिरी बात: तिलक जैसे लोग रोज़ पैदा नहीं होते
तिलक कोई राजा नहीं थे। न करोड़पति, न ताकतवर मंत्री। वो सिर्फ एक आम आदमी थे, जिनमें कुछ कर दिखाने का जुनून था। उन्होंने देश को ये सिखाया डर कर मत जीओ ,अन्याय को सहना बंद करो और सबसे बड़ी बात अपने हक के लिए आवाज़ उठाओ, चुप मत रहो।